Tuesday 2 May 2017

कविता - चले चलो...


चल, चल, चल, तुम रूकना नहीं ओ बंधु, रूकना नहीं, तुम रूकना नहीं |
साँस चले जब तक, चले चलो तब तक, रूकना नहीं, तुम रूकना नहीं |

योजनों लंबा समुद्र या वर्षा का घना जंगल, ख़तरों से तुम घबराना नहीं ।
जीवन एक ईम्तीहान याद रख़ो तुम बंधु, कठिनाईयों से दूर भागना नहीं ।

काँटों भरा पथ हो या फुलों की हो शय्या, तुम विश्राम का भी मोह करना नहीं ।
हलकी सी ठोकर से होंसले को तोड़कर, हार मान कर तुम रूकना नहीे ।

रास्तों पे कहीं-कहीं बाधाएँ तो आएँगी पर, रूख़ सच्चे रास्ते से मोड़ना नहीं ।
देश और परीवार की प्रतिष्ठा का मान रख़ो, रूकना नहीं तुम रूकना नहीं |

कर्म पे हक़ तेरा कर्म करो तुम बंधु, फ़ल की आशा में व्यर्थ जीना नहीं ।
चले चलो सब मिले, बैठे सिर्फ 'आभास' मिले, रास्ते में राही तुम रूकना नहीं |

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