Tuesday 24 January 2017

कविता - वतनमें...


आज फ़िर पथ्थरों में से कलियों को फु़टते हुए देखा है,
मोर को फ़िर से बारिशों में नाचते हुए देखा है,
आज फ़िर वतन में सूरज को डूबते हुए देखा है|
                    
                    
माँ-पा के आँचल से दूर रहकर उनके प्यार को महसूस करना सिखा है,
घर क़रीब न होने पर भी घर का अनुभव करना सिखा है,
आज फ़िर वतन में...
                
               
दादा-दादी,चाचा-चाची,मामा-मामी की याद बहुत सताती है,
छोटे छोटे भाई-बहनों की बातें भी मन को भाती है,
घर जैसा ख़ाना न मिलने पर, मन की जगह सिर्फ़ पेट भरना भी सिखा है,
आज फ़िर वतन में...
                
                    
स्कूल के उन अतरंगी दोस्तों की याद बड़ी सताती है,
याद करूँ वो पल, तो आँख भी भर आती है,
उन कमीने दोस्तों के बीना जीना भी हमने सिखा है,
आज फ़िर वतन में...
                
                
मत सोचना ए पिया कि हमनें तुम्हें याद नहीं किया,
अरे याद तो उन्हें करते हैं,जिन्हें कभी भुला दिया,
इस हरे-भरे उपवन में भी हमनें सदा तुझमें छुपे उस रब को ही देखा है,
आज फ़िर वतन में...
                
                    
नहीं पता था ये लम्हा कभी इतना ख़ास लगेगा,
डूबता हुआ सूरज भी कभी इतना पास लगेगा,
कई दिनों बाद वतन में सुबह से शाम और शाम से रात होते हुए देखा है,
आज फ़िर वतन में...

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